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10th संस्कृत सप्तम पाठ नीति स्लोका



पाठ-परिचय प्रस्तुत पाठ सुप्रसिद्ध ग्रंथ महाभारत के उद्योग पर्व से संकलित है। इसमें विदुर ने आसन्न युद्ध से उद्विग्न धृतराष्ट्र के प्रश्नों का उत्तर देकर शांति प्रदान करने का प्रयास किया है। उसी प्रश्नोत्तर रूप ग्रंथ को विदुर-नीति के नाम से जाना जाता है। विदुर महान् धर्मात्मा एवं नीतिविशारद थे। इन्होंने अपने नीति-ग्रंथ में जीवनोपयोगी विचार प्रस्तुत कर यह संदेश देना चाहा है कि व्यक्ति को परिस्थिति को ध्यान में रखकर काम करना चाहिए। ऐसा करने वाला व्यक्ति न तो कहीं अपमानित होता है और न ही समस्या से हार मानता है, अपितु अपने कर्म अथवा धर्म पथ पर आरूढ़ रहकर आनेवाली पीढ़ी को जीवन जीने की कला का सम्यक् ज्ञान देता है।

मूल पाठ : 

(अयं पाठः ............ वर्तते।)

हिन्दी-

यह पाठ सुप्रसिद्ध ग्रन्थ महाभारत का उद्योग पर्व का विशेष अंश अध्याय 33-40 के रूप में उल्लिखित विदुर-नीति से संग्रहित है। युद्ध को अवश्यंभावी और समीप देखकर धृतराष्ट्र ने सुयोग्य मंत्री विदुर को अपना चित्र शांति के लिए नीति विषय से संबंधित कुछ प्रश्न पूछते हैं । उनका उचित उत्तर विदुर देते हैं। वही प्रश्नोत्तररूप ग्रन्थरत्न विदुर-नीति है। यह भी भगवद्गीता की तरह महाभारत का एक अंग होते हुए भी स्वतंत्र ग्रन्थ रूप में है।

मूल पाठ:

   यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः ।

            समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ॥1॥

हिन्दी:- 

जिसके कार्य में शीत, ऊष्ण, भय और डर तथा सुख-दुख बाधा नहीं करते वही व्यक्ति पण्डित है।

व्याख्या—प्रस्तुत श्लोक महान् नीतिज्ञ विदुर लिखित विदुरनीति ग्रंथ से संकलित तथा 'नीतिश्लोकाः' पाठ से उद्धृत है। इसमें नीतिकार ने पंडित (ज्ञानी) जनों की विशेषता पर प्रकाश डाला है। नीतिकार का कहना है कि पंडित उन्हें कहा गया है जो हर दशा में एक समान रहते हैं। ऐसे लोगों पर जाड़ा, गर्मी, समृद्धि, असमृद्धि, डर आदि का कोई असर नहीं होता। वे हर स्थिति में समभाव रहते हैं तात्पर्य यह कि जिन्हें जीवन की सच्चाई अर्थात् सत्य का ज्ञान हो जाता है, वे प्रतिकूल परिस्थिति देखकर न तो विचलित तो हैं और न अनुकूल परिस्थिति देखकर उन्मादित होते हैं, बल्कि हर क्षण एक-सा रहते हैं। गीता में भी श्रीकृष्ण ने कहा है कि सुख-दु:ख, लाभ-हानि में एक समान रहने वाला पंडित या ज्ञानी कहलाता है।

मूल पाठ:

      तत्त्वज्ञः सर्वभूतानां योगज्ञः सर्वकर्मणाम् ।

              उपायज्ञो मनुष्याणां नरः पण्डित उच्यते ॥2॥

हिन्दी :-

सभी प्राणी के रहस्यों को जाननेवाले, सभी कार्यों को जाननेवाले तथा सभी उपाय को जाननेवाले मनुष्य को लोग पण्डित कहते हैं।

व्याख्या-  प्रस्तुत श्लोक 'नीतिश्लोकः' पाठ से लिया गया है। इसमें पंडित के विषय में कहा गया है। नीतिकार का मानना है कि जो मनुष्य सभी जीवों के जीवन रहस्य को जानता है अर्थात् जो अपने समान सारे जीवों के दुःख-सुख से दुःखी या प्रसन्न होता है, सारा काम कुशलतापूर्वक अनासक्त भाव से करता है तथा परिस्थिति को देखते हुए आचरण करता है, ऐसे मनुष्य को पंडित या ज्ञानी कहा जाता है। तात्पर्य यह कि जो मनुष्य सारे भेदभावों से ऊपर उठकर हर प्राणी के साथ सहानुभूति एवं करूणा का भाव रखता है तथा छल-कपट, दंभ, मोह आदि से परे होता है अर्थात् जो सारे जीवों में उसी ईश्वर को देखता है, जिस ईश्वर को अपने में देखता है। गीता में तत्त्वज्ञ उसे कहा गया है, जिसने जीवन सत्य को जान लिया है। इसी प्रकार कार्य के उद्देश्य को जानने वाला अर्थात् नियमानुकूल कहलाता है। संसार नाशवान है, सत्य केवल ईश्वर अथवा व्यक्ति का सद्कर्म हैं, इस बात को जाननेवाले मनुष्य को पंडित कहा जाता है।   

     अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहुभाषते ।

               अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः ।।3।।

हिन्दी-

मूढ़ और निकृष्ट मनुष्य बिना बुलाये ही आ जाते हैं, बिना पूछे बहुत बोलते हैं और अविश्वासियों पर विश्वास करते हैं।

व्याख्या :- प्रस्तुत श्लोक 'विदुरनीति' से संकलित तथा 'नीतिश्लोकाः' पाठ से लिया गया है। इसमें नीतिकार ने नीच व्यक्ति के लक्षण पर प्रकाश डाला है। नीतिकार का कहना है कि जिन व्यक्तियों को मान-सम्मान का बोध नहीं होता, वे बिना बुलाए (अकारण) किसी के यहाँ चले जाते हैं, बिना कुछ पूछे भाषण देने लगते हैं तथा विश्वास न करने योग्य पर विश्वास करते हैं। अतः नीतिकार ने ऐसा कहकर यह संदेश देना चाहा है कि जिसका स्वाभिमान मरा हुआ (नष्ट) होता है, ऐसा व्यक्ति मान-सम्मान का ख्याल किए बिना अकारण कहीं चला जाता है तथा बिना पूछे भी बक-बक करता हुआ अपनी मूर्खता का परिचय देने लगता है। साथ ही, अनिवश्वासी लोगों पर विश्वास कर बैठता है जिस कारण उसे हानि उठानी पड़ती है। इसलिए नीतिकार ने ऐसी प्रवृत्ति वाले को मूर्ख तथा मनुष्यों में नीच कहा है।

मूल पाठ:

    एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा

               वियैका परमा तृप्तिः अहिंसैका सुखावहा ॥4॥

हिन्दी-

एक ही धर्म सब श्रेयों को देनेवाला श्रेष्ठतम धर्म है। शान्ति का सर्वोत्कृष्ट रूप क्षमा है। विद्या से परमतृप्ति की प्राप्ति होती है और अहिंसा सभी प्रकार का सुख देनेवाली है।

व्याख्या—'नीतिश्लोकाः' पाठ से उद्धृत प्रस्तुत श्लोक के का माध्यम से महात्मा विदुर ने धर्म, क्षमा, विद्या एवं अहिंसा का महत्ता पर प्रकाश डाला है। नीतिकार का कहना है कि जिसने इनमें से एक को भी अपना लिया, उसका जीवन धन्य हो गया। तात्पर्य यह कि जिसने धर्म अर्थात् मानवता के मूल्य को समझ लिया है, ऐसे व्यक्ति को हर कोई सम्मान देता है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति हर काम धर्मानुकूल करता है। इस कारण विरोधी भी हानि पहुँचाने में असमर्थ हो जाता है। यह सबके साथ समान व्यवहार करता है तथा दूसरों के दु:ख से दुखी एवं सुख से प्रसन्न होता है। इसी प्रकार जिसने क्षमा करना सीख लिया है, वह सदा शांति महसूस करता है, क्योंकि क्षमागुण के कारण उसका कोई विरोध नहीं करता। विद्या की प्राप्ति ऐसा गुण है जो व्यक्ति को विजयशील बना देती है। फलतः वह सबका प्रिय हो जाता है। इसी तरह अहिंसा धर्म ऐसा गुण है जो दानव को भी देवतुल्य बना देता है। इसीलिए नीतिकार कहता है कि इनमें हर एक जीवन में सुख प्रदान करनेवाला होता है।

मूल पाठ:

     त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।

             कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् वयं त्यजेत् ॥5॥

हिन्दी-

अपने को नाश की ओर ले जाने का काम, क्रोध और लोभ नर्क के ये तीनों द्वार हैं। अतः, अपने को नर्क से बचने के लिए इन तीनों को छोड़ देना चाहिए।

व्याख्या :-

'नीतिश्लोकः' पाठ से उद्धृत प्रस्तुत श्लोक के माध्यम से यह बताया गया है कि काम, क्रोध तथा लोभ ये तीनों मनुष्य को आचरणहीन बना देते हैं। ये नरक अर्थात् पतन के मार्ग पर मनुष्य को धकेल देते हैं। अत: नीतिकार के कहने का तात्पर्य है कि काम के कारण व्यक्ति विमूढ़, क्रोध के कारण विवेकहीन अर्थात् अविवेकी तथा लोभ के कारण स्वाभिमान रहित अर्थ व्यक्तित्वहीन हो जाता है। तात्पर्य यह कि ये ऐसे दुर्गुण हैं जो जीवन को नरकीय बना देते हैं। ऐसे आचरण वाले लोगों को सभी हेय दृष्टि से देखते हैं। फलतः इनके जीवन का मूल्य नष्ट हो जाता है। अतएव मानव कहलाने के लिए इन तीनों का त्याग कर देना चाहिए। इनका त्याग किए बिना मानवता के पथ पर अथवा परमगति के मार्ग पर बढ़ना संभव नहीं है।

मूल पाठ :

    षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।

            निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता ।।6।।

हिन्दी-

ऐश्वर्य या विकास चाहने वाले पुरुष को इन निद्रा, तंद्रा, भय, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रना (किसी काम को देर तक करते रहना) छ: दोषों को छोड़ देना चाहिए।

व्याख्या-

नीतिकार का कहना है कि जिसमें ये दोष पाये जाते हैं, वह चाहते हुए भी सुख की प्राप्ति नहीं कर सकता है, क्योंकि अधिक निद्रा के कारण वह कोई काम समय पर नहीं कर पाता है तो तन्द्रावश हर काम में पीछे रह जाता है। भय अर्थात् डर के कारण काम आरंभ नहीं करता है तो क्रोध के कारण बना काम भी बिगड़ता है। इसी प्रकार आलस्य के कारण समय का दुरुपयोग होता है तो दीघ्रसूत्रता अथवा काम का कल पर छोड़ने के कारण काम का बोझ बढ़ जाता है। फलतः वह जीवन के हर क्षेत्र में पीछे रह जाता है। इसीलिए नीतिकार इन सारे दोषों को नरक अर्थात् दुःखी जीवन का द्वार या पतन का मार्ग कहता है। सुख प्राप्ति के लिए परिश्रम करना आवश्यक माना गया है। बिना परिश्रम के कोई भी अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता। अतएव इन छ: लोगों का त्याग करने पर सच्चे सुख की प्राप्ति संभव है।

मूल पाठ: 

       सत्येन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते ।

                   मृजया रक्ष्यते रूपं कुलं वृत्तेन रक्ष्यते ॥7॥

हिन्दी-

सत्य से धर्म की रक्षा होती है, विद्या से कौशल की रक्षा होती है, शृंगार और प्रसाधनों से रूप की रक्षा होती है तथा आचार से कुल की रक्षा होती है

व्याख्या :-

प्रस्तुत श्लोक 'नीतिश्लोकाः' पाठ से लिया गया है। इसमें रक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। नीतिकार का कहना है कि सच बोलनेवालों को सभी सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। समाज में प्रतिष्ठा बढ़ती है। लोग ऐसे व्यक्ति पर सदा विश्वास करते हैं। इसलिए सच बोलना चाहिए। निरंतर अभ्यास से ज्ञान में वृद्धि होती है, क्योंकि 'अनाभ्यासेन विषं विद्या' अर्थात् अभ्यास के अभाव में पढ़ी हुई विद्या भी कालक्रम से नष्ट हो जाती है। उसी प्रकार मार्जन (स्नानादि) से रूप की रक्षा होती है, अन्यथा व्यक्ति अनेक प्रकार की बीमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं। अतएव साफ-सुथरा रहना अपने-आप में इलाज (निदान) है। अच्छे आचरण से कुल या वंश की प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति को कहीं भी अपमानित होने का भय नहीं रहता।

मूल पाठ: 

     सुलभाः पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिनः ।

            अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ॥8॥

हिन्दी :-

हे राजन् ! सर्वदा सभी स्थितियों में प्रिय बोलनेवाला और सुननेवाला व्यक्ति दुर्लभ हैं, क्योंकि हित की बातें प्रिय नहीं होती।

व्याख्या:- 

'नीतिश्लोकाः' पाठ से उद्धृत प्रस्तुत श्लोक में महात्मा विदुर ने सत्य किन्तु कटुवचन के प्रभाव का वर्णन किया है। विदुर धृतराष्ट्र के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं-हे राजन् ! इस संसार में मधुर वचन बोलने वाले तथा सुननेवाले सहज रूप में मिल जाते हैं, किन्तु ऐसे लोग नहीं मिलते जो हितकारी होने के बावजूद कटु वचन सुनकर उद्वेलित (क्रोधित) न हों अर्थात् कटुवचन धैर्यपूर्वक सुननेवाले इसलिए नहीं मिलते, क्योंकि कटु वचन बड़ा तीखा होता है, चाहे वह कितना भी हितकारी क्यों न हो ! सच बोलना तथा सुनना दोनों कल्याणकारी होते हुए भी कष्टदायी होता है यदि वह कटु हो। तात्पर्य यह कि सत्य नीरस होता है जबकि असत्य सरस ! सत्य आवरणहीन होता है, इसीलिए लोग इसे पसंद नहीं करते। 

मूल पाठ: 

       पूजनीया महाभागाः पुण्याश्च गृहदीप्तयः ।

              स्त्रियः श्रियो गृहस्योक्तास्तस्माद्रक्ष्या विशेषतः ॥9॥

हिन्दी-

घर का ऐश्वर्य, घर का प्रकाश (यश) और घर की पूजनीया स्त्रियाँ, ये सभी पूज्य होते हैं। अतः, इनकी विशेष रूप से रक्षा करनी चाहिए।

व्याख्या :-

प्रस्तुत श्लोक 'नीतिश्लोकाः' पाठ से उद्धृत है। इसमें स्त्रियों के महत्त्व अथवा विशेषता पर प्रकाश डाला गया है। नीतिकार का मानना है कि स्त्रियाँ घर की लक्ष्मी होती है। इन्हीं से परिवार की प्रतिष्ठा बढ़ती है। महापुरुष भी इन्हीं के गर्भ से पैदा होते हैं | इसलिए परिवार में स्त्रियों का सम्मान होना चाहिए। तात्पर्य यह कि घर का सारा दायित्व स्त्रियों पर होता है। इन्हीं के कुशल संचालन पर घर की उन्नति अथवा अवनति निर्भर करती है। साथ ही, कोई महापुरुष के पुण्य से उत्पन्न होते हैं। अतः जब स्त्रियों के सदाचरण से परिवार सम्मानित होता है तो इनकी रक्षा करना अति आवश्यक है। इसीलिए कहा भी गया है-'जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवताओं का निवास होता है।'

मूल पाठ:

     अकीर्ति विनयो हन्ति हन्त्यनर्थ पराक्रमः ।

        हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधमाचारो हन्त्यलक्षणम् ।। 10 ॥

हिन्दी-

अकीर्ति अर्थात् अपयश विनय को नाश करती है, अनर्थ पराक्रम को नाश करता है। क्षमा क्रोध को नाश करता है और अलक्षण, अर्थात् कुलक्षण आचार को नाश करता है।

व्याख्या:- 

'नीतिश्लोकाः' पाठ से उद्धृत प्रस्तुत श्लोक के माध्यम से नीतिकार ने यह बताने का प्रयास किया है कि हर दुष्प्रवृत्ति अथवा दुराचरण को सवृत्ति या सदाचरण से सहजतापूर्वक दूर किया जा सकता है। नीतिकार का मानना है कि विनम्र व्यवहार अपयश या बदनामी को नष्ट करता है। पौरुष या पराक्रम की ऐसी क्षमता या विशेषता है कि किसी भी जुल्म अथवा अन्याय पर-विजय पा सकती है, इसी प्रकार क्षमता गुण से क्रोध पर तथा सदाचरण से कुलक्षण या दुराचरण पर नियंत्रण किया जा सकता है। तात्पर्य यह कि जब किसी में सद्गुण आ जाता है या जिसे मानवता का बोध हो जाता है, वह किसी भी दुष्प्रवृत्ति को नष्ट करने में समर्थ हो जाता है

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10th Sanskrit (संस्कृत)

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Chapter 5 भारतमहिमा  click here!

Chapter 6 भारतीयसंस्काराः  click here!

Chapter 7 नीतिश्लोकाः  click here!

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