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10th संस्कृत कर्णस्य दानवीरता 10th संस्कृत पाठ 12



पाठ - परिचय प्रस्तुत पाठ 'कर्णस्य दानवीरता' भासरचित कर्णभार नामक रूपक से संकलित है। इस रूपक की कथा महाभारत से ली गई है। महाभारत की लड़ाई में कुन्तीपुत्र कर्ण ने गौरव पक्ष की ओर से युद्ध किया था। कर्ण सूर्यपुत्र था। कर्ण का जन्म कवच-कुण्डल के साथ हुआ था। कवच-कुण्डल उसके रक्षक थे। कवच-कुण्डल के रहते उसे कोई उन्हें मार नहीं सकता था। अर्जुन इन्द्र का पुत्र था। इन्द्र ने अपने पुत्र अर्जुन की सहायता के लिए कपटपूर्वक कवच-कुण्डल दान में ले लिया। कर्ण ने अपनी दानवीरता की रक्षा के लिए अपना कवच एवं कुण्डल शरीर से उतारकर ब्राह्मणवेषधारी इन्द्र को दान दे दिया। यही कथा प्रस्तुत पाठ में वर्णित है।

मूल पाठ : (अयं पाठः ........ च वर्तते।)

हिन्दी यह पाठ भासरचित कर्णभार नामक रूपक का विशेष अंश है। इस रूपक की कथा महाभारत से ली गई है। महाभारत युद्ध में कुन्ती-पुत्र कर्ण कौरव पक्ष से युद्ध करता है। कर्ण के शरीर के साथ जन्मजात सम्बद्ध कवच और कुंडल उसका रक्षक थे। जब तक कवच और कुंडल कर्ण के शरीर में है तब तक कोई भी कर्ण को मारने में समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए अर्जुन की सहायता के लिए इन्द्र छलपूर्वक दानवीर कर्ण का कवच और कुंडल ले लेता है। कर्ण आनन्द के साथ शरीर में (अंग के जैसा चिपका हुआ) चिपका हुआ कवच और कुंडल देता है। भास के तेरह नाटक मिले हैं उनमें कर्णभारम् अत्यन्त सरल और अभिनेय है ।

हिन्दी इसके बाद ब्राह्मण रूप में इन्द्र प्रवेश करता है।

मूल पाठ -    शक्रः- भो मेघाः, सूर्येणैव निवर्त्य गच्छन्तु भवन्तः । (कर्णमुपगम्य) भोः कर्ण ! महत्तरां भिक्षां याचे।

हिन्दी- शक्र (इन्द्र)-ऐ मेघ ! आप सूर्य के साथ ही चले जाएँ।

नोट - मेघों को इन्द्र ने ऐसा आदेश इसलिए दिया कि सूर्य का प्रकाश धूमिल हो जाय, ताकि कर्ण इन्द्र को पहचान न सके । (पुनः कर्ण के समीप जाकर) ओ कर्ण ! मैं बहुत बड़ी भिक्षा की याचना करता हूँ।

मूल पाठ-     दृढं प्रीतोऽस्मि भगवन् ! कर्णो भवन्तमहमेष नमस्करोमि।

हिन्दी-कर्ण-भगवन् मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। मैं, कर्ण आपलोगों को सर्वदा नमस्कार करता हूँ।

मूल पाठ -    शक्रः- (आत्मगतम्) किं नु खलु मया वक्तव्यं, यदि दीर्घायुर्भवेति वक्ष्ये दीर्घायुर्भविष्यति। यदि न वक्ष्ये मूढ़ इति मां परिभवति। तस्मादुभयं परिहत्य किं नु खलु वक्ष्यामि । भवतु दृष्टम् । (प्रकाशम्) भो कर्ण ! सूर्य इव, चन्द्र इव, हिमवान् इव, सागर इव तिष्ठतु ते यशः।

हिन्दी - शक्र-अपने-आप सोचता है-मुझे क्या कहना चाहिए? यदि मैं दीर्घायु हो कहता हूँ तो दीर्घायु बन जायेगा, यदि न कुछ बोलूँ तो क्या मैं मूर्ख नहीं बनूँगा? इसलिए इन दोनों को छोड़कर क्यों नहीं बोलूँ। ऐसा ही हो, प्रकट रूप में ओ कर्ण ! सूर्य की तरह, चन्द्रमा की तरह, हिमालय की तरह, सागर की तरह तुम्हारा अचल यश हो ।

मूल पाठ -    कर्ण:- भगवन् ! किं न वक्तव्यं दीर्घायुर्भवेति | अथवा एतदेव शोभनम् । कुतः ।

हिन्दी - कर्ण-भगवन ! दीर्घायु हो, ऐसा आपने क्यों नहीं कहा? या यही ठीक है, क्योंकि

श्लोक-

             धर्मो हि यलैः पुरुषेण साध्यो,

             भुजङ्गजिहाचपला नृपश्रियः ।

                          तस्मात्प्रजापालनमात्रबुद्ध्या,

                            हतेषु देहेषु गुणा धरन्ते ।।

हिन्दी- कर्ण कहता है कि यत्नपूर्वक धर्म की साधना करनी चाहिए, क्योंकि सर्पजिह्वा की तरह राज्यलक्ष्मी चंचला होती है। वह स्थिर नहीं रह सकती। अतः, केवल प्रजापालन की बुद्धि से मानव जन्म की सार्थकता संभव नहीं, क्योंकि इस शरीर को हत होने पर (समाप्त होने पर) पुनः गुणों को (सत्वादि गुणों को) धारण करते हैं।

मूल पाठ - भगवन्, किमिच्छसि। किमहं ददामिः?

हिन्दी- भगवन् ! आप क्या चाहते हैं, मैं क्या हूँ ?

शक्र -  मूल पाठ: महत्तरां भिक्षा याचे। ।

हिन्दी - विशालतर भिक्षा की याचना करता हूँ।

कर्ण -  मूल पाठ: महत्तरां भिक्षा भवते प्रदास्ये। सालङ्कार गोसहसं ददामि।

हिन्दी - मैं आपको बहुत बड़ी भिक्षा दूंगा। वस्त्राभूषण के साथ हजार गायें दूंगा

शक्र - मूल पाठ -  गोसहसमिति। मुहूर्तकं क्षीरं पिबामि। नेच्छामि

कर्ण नेच्छामि।

हिन्दी -  हजार गायें ? कुछ क्षण दूध पिऊँगा। यह मैं नहीं चाहता कर्ण नहीं चाहता।

शक्र - मूल पाठ: किं नेच्छति भवान् । इदमपि श्रूयताम्। बहुसहस्र वाजिनां ते ददामि।

हिन्दी - क्या आप नहीं चाहते । पर भी तो मैं सुनें । कई हजार घोड़े मैं आपको देता हूँ।

शक्र - मूल पाठ : अश्वमिति । मुहूर्तकम् आरोहामि । नेच्छामि कर्ण नेच्छामि।

हिन्दी -  घोड़े ! कुछ समय तक उस पर सवारी करूँगा। कर्ण मैं नहीं चाहता। नहीं चाहता।

कर्ण - किं नेच्छति भगवान् ? अन्यदपि श्रूयताम् । वारणानामनेक वृन्दमपि ते ददामि।

हिन्दी - भगवान ! क्या आप यह नहीं चाहते ? अन्य बात भी सुनें। हाथियों का एक झुण्ड आपको देता हूँ।

शक्र - मूल पाठ : गजमिति ! मुहूर्तकम् आरोहामि । नेच्छामि कर्ण! नेच्छामि।

हिन्दी - हाथी ! कुछ समय मैं इसपर सवारी करूँगा । कर्ण ! मैं यह नहीं चाहता, नहीं चाहता।

कर्ण - मूल पाठ : किं नेच्छति भवान् ? अन्यदपि श्रूयताम्, अपर्याप्तं कनकं ददामि।

हिन्दी - क्या आप यह नहीं चाहते और भी सुने, बहुत-सा सोना देता हूँ।

शक्र - मूल पाठ : गृहीत्वा गच्छामि । (किंचिद् गत्वा) नेच्छामि कर्ण नेच्छामि।

हिन्दी - लेकर जाता हूँ (कुछ दूर जाकर) मैं नहीं चाहता कर्ण ! नहीं चाहता।

कर्ण - मूल पाठ : तेन हि जित्वा पृथिवीं ददामि।

हिन्दी - उनसे ही जीतकर पृथ्वी देता हूँ।

शक्र - मूल पाठ : पृथिव्या किं करिष्यामि?

हिन्दी - पृथ्वी से मैं क्या करूँगा?

कर्ण - मूल पाठ: तेन अग्निष्टोमफलं ददामि।

हिन्दी -  तो मैं आपको अग्निष्टोम यज्ञ का फल देता हूँ।

शक्र - मूल पाठ : अग्निष्टोमफलेन किम् कार्यम् ?

हिन्दी - अग्निष्टोम फल से मुझे क्या काम ?

कर्ण - मूल पाठ : तेन हि मच्छिरो ददामि ।

हिन्दी - वह नहीं तो मैं अपना शिर देता हूँ।

शक्र - मूल पाठ: अविहा अविहा।

हिन्दी - हा, हा।

कर्ण - मूल पाठ : न भेतव्यम् न भेतव्यम् । प्रसीदतु भवान अन्यदपि भ्रूयताम्।

हिन्दी - भयभीत न हों, भयभीत न हों। आप प्रसन्न हों। अन्य बातें भी सुनें।

श्लोकः-

       अङ्गैः सहैव जनितं मम देहरक्षा,

       देवासुरैरपि न भेद्यमिदं सहस्रैः।

                 देयं तथापि कवचं सह कुण्डलाभ्याम्,

                 प्रीत्या मया भगवते रुचितं यदि स्यात् ।।

हिन्दी - मेरी देह-रक्षा के लिए जो अंगों के साथ ही उत्पन्न हुए। हजारों देवता और असुरों ने भी जिसे छेद नहीं सकते। तो भी आप की इच्छा हो, तो मैं आपको वह कवच और कुण्डलों को भी सहर्ष देने को प्रस्तुत हूँ

शक्र - मूल पाठ : ( सहर्षम्) ददातु, ददातु ।

हिन्दी - हर्ष के साथ दो, दो।

कर्ण - मूल पाठ : (आत्मगतम्) एष एवास्य कामः । किं नु खल्वनेककपटबुद्धेः कृष्णस्योपायः। सोऽपि भवतु। धिगयुक्तमनु शोचितम् । नास्ति संशयः। (प्रकाशम्) गृह्यताम् ।

हिन्दी - कर्ण मन में सोचता है-क्या यह इसका काम है ? निश्चित रूप से विभिन्न प्रकार के छल-कपट बुद्धिवाले श्रीकृष्ण का यह उपाय है। सो भी ठीक है धिक्कार है मुझे ऐसा सोचने पर । यद्यपि इसमें कोई सन्देह नहीं है और प्रकट रूप में कहता है-लीजिए ।

शल्य - मूल पाठ : अङ्गराज ! न दातव्यम् न दातव्यम् ।

हिन्दी - हे अंगराज ! न देना चाहिए, न देना चाहिए।

कर्ण - मूल पाठ : शल्यराज ! अलमलं वारयितुम् । पश्य

हिन्दी - हे शल्यराज : बहुत हुआ, बहुत हुआ, मना न करें। देखो

श्लोकः-

           शिक्षा क्षयं गच्छति कालपर्ययात्,

           सुबद्धमूला निपतन्ति पादपाः ।

                        जलं जलस्थानगतं च शुष्यति,

                         हुतं च दत्तं च तथैव तिष्ठति ॥

मूल पाठ :  तस्मात् गृह्यताम् (निकृत्त्य ददाति)।

हिन्दी - इसलिए इसे ग्रहण करें और शरीर से निकालकर (अलग कर) कवच और कुण्डल देता है।

प्रश्न 1. कर्ण के पास भिक्षा मांगने कौन आए ?

उत्तर - इंद्र 

प्रश्न 2. कर्ण किस देश का राजा था ?

उत्तर - अंग

प्रश्न 3. 'महंन्तरां भिक्षां याचे' ऐसा किसने कहा ?

उत्तर - शक्र ने

प्रश्न 4. कर्णस्य दानवीरता पाठ के कवि कौन हैं ?

उत्तर - भास:

प्रश्न 5. कर्णस्य दानवीरता पाठ किस ग्रंथ से संकलित हैं ?

उत्तर - कर्ण भार

प्रश्न 6. भास के कितने नाटक हैं ?

उत्तर - 13

प्रश्न 7. कर्ण किसके पक्ष से युद्ध लड़ रहा था ?

उत्तर - कौरव

प्रश्न 8. कर्णस्य दानवीरता पाठ कहां से लिया गया है ?

उत्तर - कर्ण भार

प्रश्न 9. सूर्य पुत्र कौन था ?

उत्तर - कर्ण

प्रश्न 10. ब्राम्हण रूप में कौन प्रवेश किया ?

उत्तर - इंद्र

प्रश्न 11. कवच और कुंडल किसके पास था ?

उत्तर - कर्ण

प्रश्न 12. कर्ण किसका पुत्र था ?

उतर - कुंती

प्रश्न 13. दानवीर कौन था ?

उत्तर - कर्ण

प्रश्न 14. भिक्षुक किस भेश में आया था ?

उत्तर - ब्राम्हण

प्रश्न 15. कर्ण ने कवच और कुंडल किसको दिया ?

उत्तर - इंद्र

प्रश्न 16.  न दातव्यम् न दातव्यम् यह किसने कहा ?

उत्तर - शल्य ने

प्रश्न 17. अर्जुन किसके पक्ष से युद्ध लड़ रहा था ?

उत्तर - पांडव

प्रश्न 18. समय परिवर्तन के साथ कौन नष्ट हो जाता है ?

उत्तर - धन

प्रश्न 19. कर्ण के कवच कुंडल की क्या विशेषता थी ?

उत्तर - उसे भेदा नहीं जा सकता था

प्रश्न 20. कर्णस्य दानवीरता पाठ के लेखक कौन हैं ?

उत्तर - भास

प्रश्न 21. कर्ण ने कवच कुंडल देने से पूर्व अंततः क्या देने की इच्छा प्रकट की ?

उत्तर - अपना सिर

प्रश्न 22. कर्ण भार नाटक किसकी रचना है ?

उत्तर - भास

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10th Sanskrit (संस्कृत)

Chapter 1 मङ्गलम्  click here!

Chapter 2 पाटलिपुत्रवैभवम्  click here!

Chapter 3 अलसकथा  click here!

Chapter 4 संस्कृतसाहित्ये लेखिकाः  click here!

Chapter 5 भारतमहिमा  click here!

Chapter 6 भारतीयसंस्काराः  click here!

Chapter 7 नीतिश्लोकाः  click here!

Chapter 8 कर्मवीर कथा  click here!

Chapter 9 स्वामी दयानन्दः  click here!

Chapter 10 मंदाकिनीवर्णनम्  click here!

Chapter 11 व्याघ्रपथिककथा  click here!

Chapter 12 कर्णस्य दानवीरता  click here!

Chapter 13 विश्वशान्तिः  click here!

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