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10 क्लास संस्कृत आलस कथा चैप्टर 3 आलस कथा 10 क्लास संस्कृत

 



पाठ-परिचय - 

प्रस्तुत पाठ 'अलसकथा' विद्यापति विरचित कथाग्रंथ' पुरुषपरीक्षा' से संकलित है। विद्यापति लोकप्रिय मैथिली कवि थे, फिर भी संस्कृत भाषा में ग्रंथ-रचनाकर अपना अप्रतिम प्रतिभा का परिचय दिया। पुरुष परीक्षा कथाग्रंथ में मानवीय गुणों पर प्रकाश डाला गया है तो दोषों से मुक्ति पाने की शिक्षा भी दी गई है। अलसकथा' में आलस्य का त्याग करने की शिक्षा दी गई है, क्योंकि मानव शरीर में आलस्य से बढ़कर कोई शत्रु नहीं है। कथाकार का कहना है कि आलसी व्यक्ति का जीवन अति दु:खमय होता है। व्यक्ति अपने आलस्य के कारण कोई भी काम समय पर नहीं कर पाता। फलतः उसे हर कोई हेय दृष्टि से देखता है। मित्र भी ऐसे व्यक्ति से मुँह मोड़ लेते हैं। इसीलिए आलस्य सर्वथा त्याज्य है।

मल पाठ : 

(अयं पाठः ...............मन्यते)

हिन्दी यह पाठ विद्यापतिकृत सरल संस्कृत भाषा में कथा रूप से विभिन्न मानवीय गुणों का महत्त्व वर्णन करता है और दोषों को निराकरण के लिए शिक्षा देता है। विद्यापति लोकप्रिय मैथिली कवि थे और भी बहुत-से संस्कृत विषय में भी उनकी विशिष्टता है। प्रस्तुत पाठ में आलस्य नाम का दोष के निरूपण में व्यंग्यात्मक कहानी प्रयुक्त है। नीतिशास्त्री आलस्य को शत्रुरूप मानते हैं।

मूल पाठ : 

आसीत् मिथिलायां वीरेश्वरो नाम मन्त्री । स च स्वभावाद् दानशीलः कारुणिकश्च सर्वेभ्यो दुर्गतेभ्योऽनाथेभ्यश्च  प्रत्यहमिच्छाभोजनं दापयति । तन्मध्येऽलसेभ्योऽप्यन्नवस्त्रे दापयति ।

हिन्दी-

मिथिला में वीरेश्वर नाम के मंत्री था। वह स्वभाव से दानशील और दयावान था। वह सभी निर्धनों और अनाथों को प्रतिदिन भोजन देता था। उन्हीं में आलसियों को भी अन्न और वस्त्र देता था। 

निर्गतीनां च सर्वेषामलसः प्रथमो मतः ।

किञ्चिन क्षमते कर्तुं जाठरेणाऽपि वह्निना ॥

हिन्दी-

निकृष्टों या अकर्मण्यों में आलसियों का प्रथम स्थान है, क्योंकि वह जठराग्नि, अर्थात् पेट की ज्वाला को शान्त करने के लिए कुछ नहीं कर सकता।

व्याख्या- 

प्रस्तुत श्लोक के माध्यम से वैसे लोगों पर व्यंग्य किया गया है जो बिना परिश्रम कियें अथवा पसीना बनाये किसी तरह जीने का प्रयास करते हैं ऐ आलसी लोग पेट की ज्वाला अर्थात् भूख सहन कर लेते हैं लेकिन थोड़ा भी परिश्रम करना नहीं चाहते हैं। ऐसे लोग भाग्यवादी होते हैं। वे किसी भी संकट को भाग्य पर थोपकर सहन कर लेते हैं। जबकि नीतिकार आलस्य को सबसे बड़ा दुश्मन मानता है। इसलिए हमें सारे आलस्य का त्याग करके परिश्रम करने का प्रयत्न करना चाहिए। अन्यथा जीवन दूसरों की दया पर आश्रित हो जाएगा।

मूल पाठ:

ततोऽलसपुरुषाणां तत्रेष्टलाभं श्रुत्वा

        बहवस्तुन्दपरिमृजास्तत्र वर्तुलीबभूवुः ।

हिन्दी-

तब आलसियों को इच्छित लाभ सुनकर बहुत से बिना परिश्रम भोजन पाकर तोन्द बढ़ाने वाले वहाँ इकट्ठे हो गये।

यत:- स्थितिः सौकर्यमूला हि सर्वेषामपि संहते ।

           सजातीनां सुखं दृष्ट्वा के न धावन्ति जन्तवः ।।

हिन्दी— 

सुविधाजनक स्थिति ही सभी चाहते हैं। बिना हाथ पैर हिलाए सभी सुख-सुविधा और भोजन चाहते हैं, फिर भला अपने सजातियों से सुख उपभोग करते हुए कौन जन्तु न दौड़ जायेगा?

व्याख्या- 

प्रस्तुत श्लोक के माध्यम से वैसे लोगों की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है जो किसी भी प्रकार से सुख प्राप्त करना चाहते हैं- जैसे कुछ धूर्त आलसियों को मिल रहे सुख को देखकर स्वयं भी आलस्य का स्वांग रचकर मंत्री द्वारा दिए जा रहे भोजन एवं वस्त्र ग्रहण करने लगते हैं, जबकि वे आदतन आलसी नहीं हैं। वे बनावटी आलस्य का बहाना बनाकर कुछ दिन ही मुफ्त का भोजन ग्रहण कर पाते हैं किन्तु उनके आलस्य की जब परीक्षा ली जाती है तब उनका भेद खुल जाता है और उन्हें जान बचाकर भागना पड़ता है। तात्पर्य यह है कि जो आदत जन्मजात होती है, वह हर स्थिति में खरा उतरती है।

मूल पाठ : 

पश्चादलसानां सुखं दृष्ट्वा धूर्ता अपि कृत्रिममालस्यं दर्शयित्वा भोज्यं गृह्णन्ति । तदनन्तरमलसशालायां बहुव्यव्ययं दृष्ट्वा तन्नियोगिपुरुषैः परामृष्टम् - यदक्षमबुद्ध्या करुणया केवलमलसेभ्यः स्वामी वस्तुनि दापयति, कपटेनाऽनलसा अपि गृहणन्ति इत्यस्माकं - प्रमादः । यदि भवति तदालसपुरुषाणां परीक्षां कुर्मः इति परामृश्य प्रसुप्तेषु अलसशालायां तन्नियोगिपुरुषाः वहिनं दापयित्वा निरूपयामासुः ।

हिन्दी- 

इसके पश्चात् आलसियों को ऐसा सुख देखकर धूर्त लोग भी बनावटी आलस्य दिखाकर भोजन प्राप्त करने लगे। इसके बाद अलसशाला में बहुत धन व्यय देखकर उस शाला को चलानेवाले लोग एक राय किये-यदि पोषण करने की बुद्धि से, या दया से स्वामी केवल आलसियों को ही वस्तु देते हैं और छल से कपटी आलसी भी उसे प्राप्त कर लेते हैं, यह हमलोगों की गलती है। ठीक है उन आलसियों की परीक्षा किया जाय। ऐसा विचार कर प्रस्तुत अवस्था में व्यवस्थापक लोग आलसीशाला में आग लगाकर हल्ला कर दिया।

मूल पाठ : 

ततो गृहलग्नं प्रवृद्धमग्निं दृष्ट्वा धूर्ताः सर्वे पलायिताः ।पश्चादीषदलसा अपि पलायिताः । चत्वारः पुरुषास्तत्रैव सुप्ता: परस्परमालपन्ति । एकेन वस्त्रावृतमुखेनोक्तम्- अहो कथमयं कोलाहल: ? द्वितीयेनोक्तम् - तय॑ते यदस्मिन् गृहे अग्निलंग्नोऽस्ति। तृतीयेनोक्तम् कोऽपि तथा धार्मिको नास्ति य इदानीं जलार्वासोभिः कटैर्वास्मान्  प्रावृणोति ? चतुर्थेनोक्तम् - अये वाचालाः। कति वचनानि वक्तुं शवनुथ? तूष्णीं कथं न तिष्ठथ ?

हिन्दी- 

इसके बाद घर में लगी आग को बढ़ती हुई देखकर सभी धूर्त भाग गये। पीछे थोड़े आलसी भी भागे । चार पुरुष वहीं (अपने स्थान पर) सोये रहकर परस्पर वार्तालाप करने लगे। एक कपड़े से मुँह ढंके हुए ही बोला- ओ ! यह हल्ला कैसा है ? दूसरा बोला-लगता है कि इस घर में आग लग गयी है। तीसरा बोला- कोई ऐसा धर्मात्मा नहीं है जो अभी जल से भीगा हुआ चटाई से इस आवास को ढंक दे ! चौथा बोला- ओ ! बातूनी, कितना बोलते हो? क्यों नहीं चुप रहते हो ?

मूल पाठ : 

ततश्चतुर्णामपि तेषामेवं परस्परालापं श्रुत्वा वहिलंच. वप्रवृद्धमेषामुपरि पतिष्यन्तं दृष्ट्वा नियोगिपुरुषैर्वधभयेन चत्वारोऽप्यलसाः केशेष्वावाकृष्य गृहीत्वा गृहाद् बहिःकृताः। पश्चात्तानालोक्य तैर्नियोगिभिः पठितम्

हिन्दी— 

उन चारों का परस्पर वार्तालाप सुनकर और बढ़ी अग्नि की ज्वाला उनके ऊपर गिरेगी व्यवस्थापकों ने वे जल कर मर न जायें, इस भय से उन चारों आलसियों के केश पकड़कर घसीटते हुए घर से बाहर निकाला। पीछे उन आलसियों को देखकर वे व्यवस्थापक लोग यह श्लोक पढ़ा-

श्लोक-

पतिरेव गतिः स्त्रीणां बालानां जननी गतिः ।

     नालसानां गतिः काचिल्लोके कारुणिकं बिना ॥

हिन्दी --

स्त्रियों के गति मात्र उसके पति हैं और बच्चों की गति उसकी माँ, ठीक आलसियों की गति भी इस संसार में केवल दयावान ही है।

व्याख्या- 

प्रस्तुत श्लोक के माध्यम से यह संदेश दिया गया है कि न जो अपने स्वभाव अथवा आदतवश कुछ करता है तो वह हर स्थिति में उसी आदत के अनुसार आचरण करता है। जैसे आलसी घर में आग लगी होने के बावजूद मुँह ढंककर सोया रहता है, लेकिन बनावटी आलसी, जान बचाकर भाग निकलते हैं आलसियों को दयावान रक्षा करता है और बाद में उन चारों को पहले से भी अधिक वस्तुएँ मंत्री द्वारा दी जाने लगीं।

मूल पाठ : 

पश्चात्तेषु चतुर्वलसेषु ततोऽप्यधिकतरं वस्तु मन्त्री दापयामास। 

हिन्दी- इसके बाद उन चारों आलसियों को पहले से अधिक चीजें मंत्री देने लगे।

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10th Sanskrit (संस्कृत)

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