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10th संस्कृत विश्वशान्तिः 10th संस्कृत पाठ 13



पाठ-परिचय 

प्रस्तुत पाठ 'विश्वशान्तिः' में यह संदेश दिया गया है कि शांति से ही विश्व का कल्याण संभव है। इसी उद्देश्य से अशांति की आग में जल रहे संसार के समाधान के विषय में इस पाठ में विचार किया गया है। अभी सारा विश्व अनेक प्रकार की समस्याओं से ग्रस्त होने के कारण अस्त-व्यस्त है। देश के अन्दर तथा बाहर भी अशांति का वातावरण है। इसलिए सभी लोग चिन्तित हैं, क्योंकि किसी भी देश के समुचित विकास के लिए शान्त वातावरण का होना आवश्यक होता है। आज तक वही देश या समाज पूर्ण विकास कर पाया है, जहाँ शांति के अनुकूल वातावरण रहा है। लेखक की सलाह है कि शांति की स्थापना के लिए सभी सम्यक् प्रयास करें।

मूल पाठ : (पाठेऽस्मिन्  .......... प्रयास क्रियन्ते।

हिन्दी :-इस पाठ में सम्प्रति संसार में अशांति वातावरण का चित्रण और उसका समाधान का उपाय दोनों बताये गये हैं। देश में आंतरिक और बाहरी दोनों प्रकार की अशांति है। इसे उपेक्षा कर कोई भी जीवन व्यतीत नहीं कर सकता। इस प्रकार की अशांति सार्वभौमिक, अर्थात् विश्वभर में है, यही दु:ख का विषय है। सभी लोग इस अशांति से चिंतित हैं । संसार भर में उसे दूर करने के लिए हर प्रकार के प्रयत्न करना चाहिए।

मूल पाठ : 

वर्त्तमाने संसारे प्रायशः सर्वेषु देशेषु उपद्रवः अशान्तिर्वा दृश्यते । क्वचिदेव शान्तं वातावरणं वर्तते । क्वचित् देशस्य आन्तरिकी समस्यामाश्रित्य कलहो वर्तते, तेन शत्रुराज्यानि मोदमानानि कलह वर्धयन्ति । क्वचित् अनेकेषु राज्येषु परस्परं शीतयुद्धं प्रचलति । वस्तुतः संसारः अशान्तिसागरस्य कूलमध्यासीनो दृश्यते । अशान्तिश्च मानवताविनाशाय कल्पते । अद्य विश्वविध्वंसकान्यसाणि बहून्याविष्कृतानि सन्ति । तैरेव मानवतानाशस्य भयम् ।

हिन्दी -

वर्तमान काल में संसार के सभी देशों में उपद्रव और अशांति दीख पड़ती है। कहीं ही थोड़ी शांति का वातावरण है। किसी देश में आंतरिक समस्या लेकर कलह है, इससे शत्रु राज्य आनन्द मनाते हैं और इस कलंक को और बढ़ाते हैं। अनेक राज्यों में परस्पर थोड़ा-थोड़ा शीतयुद्ध चलता है। इस प्रकार संसार सचमुच आज अशांति सागर के किनारों के बीच दिखता है। अशांति मानव विनाश का कारण है। आज विश्व को विनाश करनेवाले अनेक अस्त्रों का आविष्कार हो चुके हैं। इनसे मानवता नाश का भय उत्पन्न हो गया है।

मूल पाठ : अशान्ते: कारणं तस्याः निवारणोपायश्च सावधानतया चिन्तनीयौ । कारणे ज्ञाते निवारणस्य उपायोऽपि ज्ञायते इति नीतिः । वस्तुतः द्वेषः असहिष्णुता च अशान्तेः कारणद्वयम् । एको देशः अपरस्य उत्कर्ष दृष्ट्वा द्वेष्टि, तस्य देशस्य उत्कर्मनाशाय निरन्तरं प्रयतते । द्वेषः एव असहिष्णुतां जनयति । इमी दोषौ परस्परं वैरमुत्पादयतः। स्वार्थश्च वैरं प्रवर्धयति । स्वार्थप्रेरितो जनः अहंभावेन परस्य धर्म जाति सम्पत्ति क्षेत्रं भाषां वा न सहते । आत्मन एव सर्वमुत्कृष्टमिति मन्यते। राजनीतिज्ञाश्च अत्र विशेषेण प्रेरकाः । सामान्यो जनः न तथा विश्वसन्नपि बलेन प्रेरितो जायते । स्वार्थोपदेश: बलपूर्वक निवारणीयः। परोपकार प्रति यदि प्रवृत्तिः उत्पाद्यते तदा सर्वे स्वार्थं त्यजेयुः । अत्र महापुरुषाः विद्वांसः चिन्तकाश्च न विरलाः सन्ति । तेषां कर्तव्यमिदं यत् जने-जने समाजे-समाजे, राज्ये राज्ये च परमार्थ वृत्तिं जनयेयुः।

हिन्दी - अशान्ति के कारण और उनका निवारण का उपाय सावधानी-पूर्वक सोचना चाहिए। कारण जान लेने से उसे निवारण का उपाय भी समझ में आ जाता है । वस्तुत: द्वेष और असहिष्णुता अशान्ति के दो कारण हैं। एक देश दूसरे की अभिवृद्धि को देखकर द्वेष करते हैं और उस देश की अभिवृद्धि को नाश करने के लिए हर समय प्रयास करते हैं। द्वेष ही अहिष्णुता को जन्म देता है। ये दोनों दोष परस्पर वैर उत्पन्न करते हैं और स्वार्थ वैर को बढ़ाता है। स्वार्थ से प्रेरित लोग अहंभाव (अहंकार के भाव से) दूसरे का धर्म, जाति को, सम्पत्ति को क्षेत्र को या भाषा को नहीं सहन करते। अपने को ही सर्वोत्कृष्ट मानते हैं। राजनीतिज्ञ लोग, अर्थात् राजनीति करनेवाले लोग यहाँ इसका विशेष रूप से प्रेरक होते हैं, सामान्य लोग नहीं, तथापि विश्वास करते हुए भी उस शक्ति बल से प्रेरित हो जाते हैं। यह स्वार्थ का उपदेश को बलपूर्वक दूर करना चाहिए। यदि परोपकार के प्रति प्रवृत्ति उत्पन्न किया जाय जब सभी स्वार्थों को छोड़ देना चाहिए। यहाँ महापुरुष लोग, विज्ञान लोग और चिन्तन करनेवाले लोग थोड़े नहीं हैं । उनलोगों का कर्त्तव्य यह है कि प्रत्येक लोग में, प्रत्येक समाज में और प्रत्येक राज्य में परमार्थ की भावना उत्पन्न करें।

मूल पाठ : शुष्कः उपदेशश्च न पर्याप्तः, प्रत्युत तस्य कार्यान्वयनञ्च जीवनेऽनिवार्यम् । उक्तञ्च - ज्ञानं भारः क्रियां विना। देशानां मध्ये च विवादान् शमयितुमेव संयुक्तराष्ट्रसंघप्रभृतयः संस्थाः सन्ति । ताश्च काले-काले आशङ्कितमपि विश्वयुद्धं निवारयन्ति । भगवान् बुद्धः पुराकाले एव वैरेण वैरस्य शमनम् असम्भवं प्रोक्तवान्। अवरेण करुणया मैत्रीभावेन च वैरस्य शान्तिः भवतीति सर्वे मन्यन्ते । भारतीयाः नीतिकाराः सत्यमेव उद्घोषयन्ति

हिन्दी - किन्तु कोरा और सूखा उपदेश ही पर्याप्त नहीं, प्रत्युत् उनका कार्यान्वयन जीवन में अनिवार्य है। और कहा भी गया है-क्रिया के बिना ज्ञान भार है। देशों के बीच विवादों को निपटारे के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ इत्यादि संस्थाएँ हैं। वे समय-समय पर आशंकित विश्वयुद्ध को शान्त करते हैं। भगवान बुद्ध प्राचीन काल में ही "वैर से वैर का समन नहीं होता कहा था। वैर की भावना छोड़ने से करुणा और मैत्रीभाव अपनाने से वैर की शांति होती है, सभी इसे मानते हैं। भारतीय नीतिशास्त्र निर्माता सत्य ही उद्घोषित करते हैं-

श्लोक:- 

       अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।

                       उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

हिन्दी - यह मेरा है वह दूसरों का है, अर्थात् यह मेरा परिवार है, वह दूसरे का परिवार है, ऐसा संकुचित बुद्धिवाले कहते हैं, किन्तु उदार विचार वाला पुरुष के लिए तो समस्त संसार ही अपना कुटुम्ब है। यह भारत की नीति है और इसी नीति से आज संसार में शांति स्थापित किया जा सकता है।

मूल पाठ : 

परपीडनम् आत्मनाशाय जायते, परोपकारश्च शान्तिकारणं भवति । अद्यापि परस्य देशस्य संकटकाले अन्ये देशाः सहायताराशिं सामग्री च प्रेषयन्ति इति विश्वशान्तेः सूर्योदयो दृश्यते ।

हिन्दी - परपीड़ा, अर्थात् दूसरों को दु:ख पहुँचाना आत्मनाश उत्पन्न करती है, और परोपकार, अर्थात् दूसरों की भलाई शान्ति उत्पन्न करने का कारण बनता है। आज भी एक देश के संकट काल में अन्य देशों से सहायता राशि, अर्थात् धन और सामग्रियाँ भेजी जाती हैं यह विश्व शांति को सूर्योदय दिखता है।

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10th Sanskrit (संस्कृत)

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